1- धर्म का पालन करना ही सुख का मूल है | मानवोचित कर्तव्य या नीति
को ही धर्म सुख का मूल माना गया है |
भावार्थ – धर्म ,नीति ने ही पूरे जगत को धारण कर रखा है
अन्यथा वह कभी का लड-झगडकर समाप्त हो गया होता |अधर्म आपात द्रष्टि से
सुख का मूल दीखने पर भी दुःख का मूल है | धर्म-पालन से दुःख दायी पाप की
संभावनायें समाप्त हो जाती |नीति का अनुसरण किये बिना मनुष्य की संभावनायें समाप्त
हो जाती |नीति का अनुसरण किये बिना मनुष्य को मानसिक अभ्युत्थानमूलक सच्चा सुख
प्राप्त नहीं हो सकता |मानसिक पतन से मिलने वाला सुख ,सुख न होकर अनन्त दुःख जाल
ही है |जगत का धारण ,पालन करे वाले नीतिमत्ता ,कर्तव्यपालन ही मनुष्य का धर्म है |
2- धर्म अर्थात् नीतिमत्ता को सुरिक्षित रखने में राज्यश्री का महत्वपूर्ण स्थान होता है |
भावार्थ - राज्य संस्था
जितनी तेजस्वी और सम्पन्न होती है ,प्रजा उतनी ही नीति-परायण बनती है |धर्म अर्थात् नीतिमत्ता को सुरिक्षित रखने में ही ‘राज्यश्री’
राज्य-व्यवस्था का हित होता है | इसमे व्यवधान होने पर प्रजा में अनीति का चलन हो
जाता है | अनीति को रोकने के लिए उपरोक्त व्यवस्था अत्यन्त आवश्यक होती है |गड़बड़
होने पर राष्ट्र–व्यवस्था बरसाती नदियों के समान ही लुप्त हो जाया करती है |जगत को
धारण करने वाली नीति को राष्ट्र में सुरिक्षित रखने में अर्थात् राज्यश्री ही
मुख्य कारण होती है |
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