Sunday, 6 October 2013

आचार्य चाणक्य जी ने धर्म के बारे में क्या कहा.

1-  धर्म का पालन करना ही सुख का मूल है | मानवोचित कर्तव्य या नीति को ही धर्म सुख का मूल माना गया है |


    भावार्थधर्म ,नीति ने ही पूरे जगत को धारण कर रखा है अन्यथा वह कभी का लड-झगडकर समाप्त हो गया होता |अधर्म आपात द्रष्टि से सुख का मूल दीखने पर भी दुःख का मूल है | धर्म-पालन से दुःख दायी पाप की संभावनायें समाप्त हो जाती |नीति का अनुसरण किये बिना मनुष्य की संभावनायें समाप्त हो जाती |नीति का अनुसरण किये बिना मनुष्य को मानसिक अभ्युत्थानमूलक सच्चा सुख प्राप्त नहीं हो सकता |मानसिक पतन से मिलने वाला सुख ,सुख न होकर अनन्त दुःख जाल ही है |जगत का धारण ,पालन करे वाले नीतिमत्ता ,कर्तव्यपालन ही मनुष्य का धर्म है |

2-   धर्म अर्थात् नीतिमत्ता को सुरिक्षित रखने में राज्यश्री का महत्वपूर्ण स्थान होता है |


भावार्थ - राज्य संस्था जितनी तेजस्वी और सम्पन्न होती है ,प्रजा उतनी ही नीति-परायण बनती है |धर्म अर्थात् नीतिमत्ता को सुरिक्षित रखने में ही ‘राज्यश्री’ राज्य-व्यवस्था का हित होता है | इसमे व्यवधान होने पर प्रजा में अनीति का चलन हो जाता है | अनीति को रोकने के लिए उपरोक्त व्यवस्था अत्यन्त आवश्यक होती है |गड़बड़ होने पर राष्ट्र–व्यवस्था बरसाती नदियों के समान ही लुप्त हो जाया करती है |जगत को धारण करने वाली नीति को राष्ट्र में सुरिक्षित रखने में अर्थात् राज्यश्री ही मुख्य कारण होती है |

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