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राष्ट्र व्यवस्था तन्त्र कहलाती है |वह केवल स्वराष्ट्र विषयों के कर्तव्यों से सम्बन्धित रहती है |
भावार्थ- राज्य स्वदेश
सम्बन्धी कर्तव्य करते रहने मात्र से अपने आप व्यवस्थित होता चला जाता है |जहां
राज्य अव्यवस्थित होता है ,वहां राज्यधिकारियों की स्वदेश सम्बन्धी कर्तव्यों की
अवेहलना ही उसका कारण होता है |उसी से राष्ट्र में अव्यवस्था फैलती है |अतः इन
कर्तव्यों को करते रहने से राष्ट्र अपने आप सुव्यवस्थित रहता है |इसका उल्लंघन
करने से राष्ट्र में अव्यवस्था उत्पन्न होती है |
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