1-
अप्राप्त राज्येश्वर्य का निरन्तर संग्रह करते चले जाना प्रयत्नहीन शक्ति मंद आलसी का काम नहीं है |
भावार्थ- दैव यदि आलसी को
कुछ दे भी दे तो उससे उसके द्रव्य की रक्षा भी नहीं होती है |मनुष्य में
सत्यनिष्ठा न होना ही आलस्य है |सत्यहीन व्यक्ति न करने योग्य काम करता है तथा
योग्य सत्यानुमोदित प्रयत्नों में आलस्य करता है |अकर्त्तव्य अर्थात न योग्य काम
करना तथा कर्त्तव्यों अर्थात करने योग्य कामों से बचते रहना ही आलस्य है |आलस्य
मनुष्य के शरीर के ही शरीर में रहने वाला मनुष्य का घरेलू महाशत्रु है |कार्यों से
बचना ही आलस्य होता है |
2-
आलस सत्यहीन ,प्रयत्नहीन व्यक्ति का दैववश संचित
राजेश्वर्य कुछ काल तक सुरिक्षित दिखने पर भी उसके बुद्दिमान्ध से वृद्दि को
प्राप्त नहीं होता है |
भावार्थ- राजेश्वर्य
वृद्दि न होना ही अनिवार्य विनाश है |आलस्य देहस्थ अन्तः शत्रु है |इसलिए मानव
आलस्यरूपी दोष को सदा त्याग करता रहे |अनलस की लब्ध की रक्षा कर पाता है और इस
कारण वृद्दि अवश्य होती है |आलस के कारण आलसी व्यक्ति राजेश्वर्य की वृद्दि नहीं
कर पाता है |अतः व्यक्ति को सदा अपने आलस को त्याग करते रहना चाहिए |यदि वह येसा
नहीं करता है तो उसके राजेश्वर्य में वृद्दि न होकर बिनाश अनिवार्य होता है |
3-
आलस सत्यहीन ,प्रयत्नहीन ,योगसक्त राजा या राज्याधिकारी राजकीय कर्मचारियों को काम या उचित सेवा में लगानें तथा उनसे उचित सेवा लेने प्रमाद कर बैठते हैं |
भावार्थ- राज या
राज्याधिकारीगण जब स्वयं आलस्यवश कार्य न कर अपने नौकरों से काम लेते हैं तो फिर
सर्वनाश का श्रीगणेश होने लगता है |यह एक भयंकर अपराध है |येसे लोगों के कारण तब
राज्य-व्यवस्था भंग होने लगती हैं |काम करने से बचना जिसका स्वभाव हो जाता है ,वः
भ्रत्यों से काम लेने रूपी कर्म से भी स्वभाव से बचता है |यही उसके आलस्य का
स्वरूप है |आलस्य न त्यागना ,भ्रत्यों से यथोचित काम न लेना ,राजा की
राज्यव्यवस्था को अव्यवस्थित कर देने रूपी भयंकर अपराध है |
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